इस प्रकार पूरे राजकोट को सौराष्ट्र से पलायन करने वाले लोगों की शरणस्थली कहा जाता है, लेकिन राजकोट दक्षिण निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र को मूल राजकोट माना जाता है. अहमदाबाद की तरह यहां कोट इलाका नहीं है लेकिन वडोदरा की तरह, राजकोट में पुराने बाजार और पुराने आवासीय क्षेत्र हैं जो मूल शहर की पहचान हैं. न्यू राजकोट ऑयल इंजन और इंजीनियरिंग का हब है, जबकि ओल्ड राजकोट सिल्वरस्मिथिंग और इमिटेशन ज्वेलरी के लिए देश भर में मशहूर है. सौराष्ट्र के किसी गांव में ऐसा कोई सुनार नहीं है जिसे महीने में एक बार राजकोट के इस क्षेत्र में चांदी के काम या इमिटेशन आभूषण के लिए नहीं आना पड़ता हो. यदि पटेल जातिवाद के प्रवर्तक हैं, तो राजकोट को जातिवाद का पहला केंद्र मानना होगा. पूरे सौराष्ट्र में हर गांव और हर जाति में जातिवादी समीकरणों को स्पष्ट करने में राजकोट और पाटीदारों की बड़ी भूमिका रही है. सामान्य वर्ग की यह विधानसभा सीट भी कटु जातिवादी समीकरणों से अटी पड़ी है. इस बैठक के तहत निगम के नौ वार्डों के 2,42,500 मतदाता पंजीकृत हैं.
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मिजाज
इस सीट को लेकर राजकोट के लोगों में उत्साह का पहला सबूत यह है कि बीजेपी का पिछला अवतार जनसंघ पूरे गुजरात में जमीन हासिल करने के लिए छटपटा रहा था और कांग्रेस का चौतरफा कांग्रेस का दबदबा था. तब सबसे पहले 1967 में पहली बार इस सीट से भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में चिमनभाई शुक्ल को कांग्रेस उम्मीदवार के मुकाबले लगभग दोगुने वोट मिले थे. तब से मनोहर सिंह जाडेजा के प्रभुत्व को छोड़कर यह सीट भाजपा को समर्पित है. पिछले तीन चुनावों में यहां बीजेपी के गोविंद पटेल भारी मतों से जीत हासिल कर चुके हैं. इस बार पूरी संभावना है कि प्रत्याशी बदलने के बावजूद बीजेपी यहां अपना दबदबा बरकरार रखेगी.
रिकॉर्ड बुक
साल विजेता पार्टी मार्जिन
1998 रमेश रूपापरा बीजेपी 12,007
2002 टपूभाई लिंबासिया भाजपा 16,585
2007 गोविंद पटेल भाजपा 35,643
2012 गोविंद पटेल बीजेपी 28,477
2017 गोविंद पटेल बीजेपी 47,121
कास्ट फैब्रिक
इस सीट पर लगभग 70,000 लेउवा पाटीदारों को सबसे प्रभावशाली जाति कारक माना जाता है. कोली, ब्राह्मण, भरवाड़ और राजपूत समुदाय की आबादी भी काफी है. हालांकि, जब प्रत्येक पार्टी पाटीदार उम्मीदवार को ही मैदान में उतारती है, तो शेष जाति समुदाय निर्णायक हो जाते हैं. यहां पाटीदारों और कोली दोनों के लिए समान अवसर माने जाते हैं. इस बार तीनों उम्मीदवार लेउवा पाटीदार होने के कारण अन्य जाति समुदायों का झुकाव महत्वपूर्ण होगा. चूंकि बीजेपी का प्रतिबद्ध वोट बैंक मजबूत है, इसलिए उसकी जीत तय मानी जा रही है.
समस्या
पुराने नगरीय क्षेत्रों में निगम संबंधी समस्याएं यहां प्रमुख हैं. चुनाव के बाद बाजार क्षेत्रों में अलग-अलग पार्किंग व्यवस्था, बहुमंजिला पार्किंग परिसर आदि जैसी चीजें किसी को याद नहीं रहती. सौराष्ट्र का सबसे बड़ा शहर होने के बावजूद यहां भूमिगत नालों की समस्या गंभीर मानी जाती है. इसके अलावा जीएसटी की दर को लेकर व्यापारियों की नाराजगी दूर नहीं हुई है. पंद्रह साल पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की इमिटेशन ज्वेलरी उद्योग के विकास के लिए राजकोट को ज्वैलर्स पार्क देने की बात आगे नहीं बढ़ पाई है.
मौजूदा विधायक का रिपोर्ट कार्ड
राजकोट शहर और जिले के दिग्गज नेता गोविंद पटेल और विजय रुपाणी के बीच की अनबन जगजाहिर है. गोविंद पटेल अपनी ही सरकार के भ्रष्टाचारों का पर्दाफाश कर यहां व्हिसिल ब्लोअर साबित हुए हैं. हालांकि उम्र सीमा और तीन कार्यकाल की वजह से उनको टिकट नहीं मिला, उनके स्थान पर चुने गए रमेश तिलाला बड़े उद्योगपति, शापर वेरावल औद्योगिक संघ के अध्यक्ष और खोडलधाम के ट्रस्टी रह चुके हैं. ऐसा आभास होता है कि नरेश पटेल ने उन्हें बीजेपी का टिकट दिलाने के लिए काफी मेहनत की है. धन बल, कास्ट फैक्टर, पार्टी संगठन और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा जैसे हर मुद्दे पर तिलाला अग्रणी नजर आते हैं.
प्रतियोगी कौन?
कांग्रेस ने यहां से हितेश वोरा को मैदान में उतारा है. कांग्रेस में इस सीट को लेकर कई लोगों ने दावेदारी पेश की थी. लेकिन जब तक कांग्रेस आंतरिक गुटबाजी की चिरस्थायी बीमारी का इलाज नहीं कर लेती, तब तक उसके लिए भाजपा का सामना करना आसान नहीं होगा.
तीसरा कारक
आम आदमी पार्टी ने यहां शिवलाल बरासिया को मौका दिया है लेकिन आम आदमी पार्टी का संगठन राजकोट शहर या जिले में कहीं भी अहम नहीं दिखता. ऐसे में इस बात की कोई संभावना नहीं है कि आम आदमी पार्टी बीजेपी के गढ़ में निर्णायक साबित होगी. अगर नतीजे आने तक दोतरफा मुकाबला एकतरफा मैच साबित हो जाए तो हैरानी की बात नहीं होगी.
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